वसुंधरा /डाॅ० विभव सक्सेना

 जिस वसुन्धरा पर ईश्वर ने भी बारम्बार स्वयं जन्म लिया है,

देखो उस पृथ्वी का मानव ने आज यह कैसा हाल किया है?

मनुष्य के पापों का दिन और रात बेबस धरती बोझ ढोती है,

और उसके अत्याचारों से पीड़ित होकर वह निरन्तर रोती है।

पुकारती है पृथ्वी कि मानव अब तो कुम्भकर्णी नींद से जागे,

प्रकृति से जुड़ जाए वह हृदय से और स्वार्थसिद्धि को त्यागे।

यदि मनुष्य इस वसुन्धरा की रक्षा करने में सफल हो जाएगा,

तब ही सच्चे अर्थों में उसका अपना भी अस्तित्व बच पाएगा।

सो पहले जैसी हो यह पृथ्वी सारी और उसका दोहन बंद हो,

नदियाँ कल-कल बहें यहाँ जीवों का विचरण भी स्वच्छंद हो।

वृक्षों से आभूषित हो यह धरती और प्रदूषण भी नियंत्रित हो,

इतनी समृद्ध बने वसुधा जिस पर हर खुशहाली आमंत्रित हो।

कुछ ऐसा सार्थक करें हम कि हो सके मानव का भी गुणगान,

हम सब सुखी होंगे तभी और कायम रहेगी प्रकृति की मुस्कान।।

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