मैं शहर होती तो हर सड़क सिर्फ एक मंज़िल तक नहीं जाती, कुछ रास्ते खुद में ही गुम हो जाते, जैसे कोई इंसान खुद की तलाश में निकलकर भीड़ का हिस्सा बन जाता है। मैं शहर होती तो मेरी सुबहें अख़बार की स्याही से नहीं, किसी बूढ़ी दादी की खाँसी से जागतीं, जो बरसों से इसी मोहल्ले में है मगर अब किसी को याद नहीं। मैं शहर होती तो मेरा मौसम भी राजनीति की तरह बदलता नहीं, बल्कि किसी प्रेमी की तरह वक़्त पर लौट आता भीगा हुआ, बेचैन, और सच्चा। मैं शहर होती तो मेरी आत्मा किसी कचरे में फेंकी किताब में मिलती, जिसे एक बच्चा उठाता है और शब्दों में अपना भविष्य देखता है।…
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