देखता हूँ, पर आँखों से नहीं /सैफू शेख

 1. बचपन का पृष्ठ —


मैं जन्मा तो सभी ने कहा,

"अफ़सोस... इसके पास तो आँखें नहीं हैं।"

सोचा था कोई रोग है, छिपकर गुज़र जाएगा,

क्या ख़बर थी I 

यह कमी तो जीवनभर साथ निभाएगी।


दुनिया में आने से पूर्व, ईश्वर ने मुझसे कहा था,

"नीचे जाते ही, तुम्हें रोना होगा।"

किन्तु उन्होंने यह नहीं बताया,

कि मेरी आँखें नहीं होंगी I 

तो मैं रोऊँगा कैसे?


मजबूरन मुझे अपने हृदय से रोना पड़ा,

जहाँ चारों ओर केवल अंधकारमयी दुनिया थी,

क्योंकि मैं रोता हूँ, पर आँखों से नहीं।


2. संसार का पहला दर्द —


किसी ने हँसकर ज़ोर से कहा,

"अरे, यह तो अंधा है!"

मैं मौन रहा…

मैं क्या कहता उस समय?

सत्य तो यही है I 

मैं देख नहीं सकता,

परंतु उसने मेरे सत्य को तमाशा क्यों बनाया?


शायद वह शिक्षित नहीं था…

या फिर वह उन सोचों में पला था

जो केवल मजबूरियों पर हँसना सिखाती हैं।


मेरा नाम रहमान है,

किन्तु लोग मुझे नाम से नहीं बुलाते,

कभी 'बेचारा' तो कभी 'अंधा' 

मानो मेरी पहचान इन दो आँखों की कमी हो।


"मुझे मेरी पहचान नहीं मिलती,

क्योंकि मैं ढूँढ़ता हूँ... पर आँखों से नहीं।"


3. ईश्वर की तस्वीर —


अंधे की आँख,

उस ईश्वर की तस्वीर की भाँति है I 

जो कभी बनी ही नहीं,

किन्तु जिसका अस्तित्व हर हृदय में है।


उस तस्वीर में रंग नहीं,

किन्तु सुकून हर कोने में बसा होता है।


मैं प्रायः सोचता हूँ...

शायद ईश्वर ने मुझे आँखें इसलिए नहीं दीं,

क्योंकि वह मुझे वह सच्चाई दिखाना चाहते थे

जो आँखों से नहीं,

हृदय से अनुभव होती है।


जो आँखों से नहीं देखता,

वही सबसे गहरा अनुभव करता है।

क्योंकि मैं अनुभव करता हूँ, पर आँखों से नहीं।


4. अंधे के स्वप्न —


यदि मैं अंधा न होता तो

मैं उनके चेहरे भी देखता,

जो मेरी कमी पर हँसते रहे,

सुनहरी धूप में भी, उनके चेहरों पर चमकता अंधकार बसा होगा...


फिर अम्मी के चेहरे का नूर देखता,

उसके बाद पूरी निष्ठा से बिना डरे प्रेम करता,

अपनी ही आँखों में अपने चेहरे की सुंदरता अनुभव करता,

वर्षों से हृदय में पलते स्वप्नों को सत्य करता

क्योंकि मैं स्वप्न बुनता हूँ, पर आँखों से नहीं।


5. अंतिम पृष्ठ —


एक मोड़ पर देखा,

अपवित्र साए एक स्त्री को नोच रहे थे I 

आँखों वाले गुज़रे,

किन्तु नज़रें झुका कर।

शरीर से जीवित थे...

किन्तु आत्मा से मृत हो चुके थे।


मैं अंधा था,

किन्तु अंतःकरण से प्रकाशमान,

निर्दयता सहन न हुई।

बीच में जाकर रोका तो कहने लगे -

"यह अंधा क्या करेगा?"


इसी बहाने वह स्त्री निकल गई,

तभी क्रोध में आकर

चाकू ने छाती चीर दी।


रक्त था भूमि पर,

चेहरे पर थी मुस्कान।

और आँखों वालों से कहा:


"कि तुम सब आँखों से देखते हो, इसीलिए अंधे हो..."

मैं अंधा हूँ… किन्तु तुमसे उत्तम हूँ।

क्योंकि मैं देखता हूँ… पर आँखों से नहीं।

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