आज की दौड़ती-भागती दुनिया में "सफलता" का पैमाना सिर्फ ओहदे, बैंक बैलेंस और लोकप्रियता बन चुका है। हर दूसरा युवा कहता है — "मुझे बड़ा आदमी बनना है।" पर क्या कभी किसी ने कहा, "मुझे अच्छा इंसान बनना है"? यह प्रश्न जितना सरल दिखता है, उत्तर उतना ही टेढ़ा और टालू हो गया है। एक समय था जब चरित्र, व्यवहार और इंसानियत को जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता था, पर आज ये शब्द केवल किताबों, भाषणों और सोशल मीडिया के कोट्स तक सीमित रह गए हैं। असल ज़िंदगी में अच्छाई, सहानुभूति और संवेदनशीलता को अक्सर कमज़ोरी समझा जाने लगा है।
समाज में ऊँचे पदों पर बैठे हुए लोगों की चर्चा होती है, उनके इंटरव्यू होते हैं, उनकी तस्वीरें छपती हैं। लेकिन क्या कोई उस व्यक्ति की अच्छाई पर चर्चा करता है जिसने बिना किसी स्वार्थ के किसी की मदद की हो? बहुत कम। क्योंकि आज की दुनिया में अच्छाई कोई "हेडलाइन" नहीं बनती। बड़ा आदमी बनने की इच्छा में कोई बुराई नहीं है, पर यदि यह रास्ता हमें दूसरों को कुचलकर, नीचा दिखाकर, या आत्मसम्मान तोड़कर ले जाए, तो ये सफलता नहीं, एक सामाजिक विफलता है।
इस लेख का उद्देश्य न किसी की आलोचना करना है, न ही किसी की महत्वाकांक्षा को गलत ठहराना। पर यह ज़रूरी है कि हम अपनी सोच को थोड़ा झकझोरें। क्या हम खुद से ये सवाल करते हैं कि हमारा व्यवहार कैसा है? क्या हम अपने पद, नाम या पैसे से ज़्यादा अपनी अच्छाई के लिए जाने जाते हैं? एक अच्छा इंसान बनने के लिए डिग्री, पैसे या ओहदा नहीं चाहिए, बस एक संवेदनशील दिल, सही नीयत और दूसरों की भावनाओं की कद्र करने की समझ चाहिए।
युवाओं में आज आत्मविश्वास तो बहुत है, लेकिन आत्मचिंतन नहीं। वे ऊँचाई पर पहुँचने के लिए मेहनत करते हैं, पर अपनी अंतरात्मा से कितनी बार जुड़ते हैं? एक अच्छा इंसान वही होता है जो अपनी सफलता से ज़्यादा अपने व्यवहार से पहचाना जाए। जो यह न सोचे कि सामने वाला क्या दे सकता है, बल्कि यह सोचे कि वह सामने वाले को क्या दे सकता है — थोड़ा समय, थोड़ा सम्मान, थोड़ी सी मदद, और ढेर सारी इंसानियत।
हमारे समाज को आज डिग्रीधारी लोगों की नहीं, बल्कि संवेदनशील और समझदार इंसानों की ज़रूरत है। ऐसे लोग जो अपने छोटे-छोटे कर्मों से बड़ा बदलाव ला सकें। जिनके लिए इज्जत कमाने का रास्ता दूसरों को नीचा दिखाने से नहीं, बल्कि उन्हें साथ लेकर चलने से होकर गुजरे।
अच्छा इंसान बनने के मायने तब और गहरे हो जाते हैं जब हम किसी की गैरमौजूदगी में भी उसकी इज्जत कर सकें, जब हम अपनी गलती स्वीकार करना सीखें, जब किसी की मदद करने के बाद उसके बदले में कुछ न चाहें। बड़ा बनकर लोग तालियाँ पाते हैं, पर अच्छा बनकर दुआएं मिलती हैं। और याद रखिए — दुआएं हमेशा तालियों से ज़्यादा दूर तक जाती हैं।
आखिर में, यह कहना ज़रूरी है कि हम जितना समय अपनी प्रोफाइल, करियर और उपलब्धियों को बेहतर बनाने में लगाते हैं, उतना ही समय यदि अपने व्यक्तित्व और व्यवहार को संवारने में लगाएं, तो शायद यह समाज भी बेहतर हो जाए और हम भी।
इसलिए अगली बार जब कोई बच्चा कहे कि उसे बड़ा आदमी बनना है, तो उससे एक बार ज़रूर पूछें — "क्या तुम अच्छा आदमी बनना नहीं चाहोगे?" क्योंकि बड़ा बनने के पीछे दुनिया भागती है, लेकिन अच्छा बनने की राह पर चलने वाले ही वास्तविक प्रेरणा बनते हैं।
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