मैं शहर होती /काजल शर्मा

 मैं शहर होती

तो हर सड़क सिर्फ एक मंज़िल तक नहीं जाती,

कुछ रास्ते खुद में ही गुम हो जाते,

जैसे कोई इंसान

खुद की तलाश में निकलकर

भीड़ का हिस्सा बन जाता है।


मैं शहर होती

तो मेरी सुबहें

अख़बार की स्याही से नहीं,

किसी बूढ़ी दादी की खाँसी से जागतीं,

जो बरसों से इसी मोहल्ले में है

मगर अब किसी को याद नहीं।


मैं शहर होती

तो मेरा मौसम भी

राजनीति की तरह बदलता नहीं,

बल्कि किसी प्रेमी की तरह

वक़्त पर लौट आता 

भीगा हुआ, बेचैन, और सच्चा।


मैं शहर होती

तो मेरी आत्मा

किसी कचरे में फेंकी किताब में मिलती,

जिसे एक बच्चा उठाता है

और शब्दों में अपना भविष्य देखता है।


मैं शहर होती

तो चौराहों पर खड़े भिखारी

मेरे संस्कार होते,

जो झुकते नहीं,

बस उम्मीद की रोटी फैलाए रहते।


मैं शहर होती

तो हर मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर और गुरुद्वारा

मेरे भीतर ही होते,

क्योंकि मुझे नहीं चाहिए था

कोई दीवार 

जो इंसानों के ईश्वर बाँट दे।


मैं शहर होती

तो हर इमारत की खिड़की से

किसी अकेली औरत की सांसें आतीं,

जो रोज़ खुद को

सजाती है

पर किसी के लिए नहीं,

सिर्फ इसलिए कि वो अब भी ज़िंदा है।


मैं शहर होती

तो मेरी रातें

किसी कवि की डायरी की तरह होतीं 

अधूरी, मगर सच्ची।

जहाँ सन्नाटा भी बोलता है,

और अंधेरा भी सुनता है।


मैं शहर होती

तो शायद तुम भी मुझसे प्यार करते 

इसलिए नहीं कि मैं बड़ी हूँ, चमकीली हूँ,

बल्कि इसलिए कि

मेरे अंदर तुम जैसा कोई

खुद को बचाने आया था।


मैं शहर होती...

तो शायद

हर टूटी दीवार पर

एक नई कविता उग आती।


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