मैं शहर होती तो हर सड़क सिर्फ एक मंज़िल तक नहीं जाती, कुछ रास्ते खुद में ही गुम हो जाते, जैसे कोई इंसान खुद की तलाश में निकलकर भीड़ का हिस्सा बन जाता है। मैं शहर होती तो मेरी सुबहें अख़बार की स्याही से नहीं, किसी बूढ़ी दादी की खाँसी से जागतीं, जो बरसों से इसी मोहल्ले में है मगर अब किसी को याद नहीं। मैं शहर होती तो मेरा मौसम भी राजनीति की तरह बदलता नहीं, बल्कि किसी प्रेमी की तरह वक़्त पर लौट आता भीगा हुआ, बेचैन, और सच्चा। मैं शहर होती तो मेरी आत्मा किसी कचरे में फेंकी किताब में मिलती, जिसे एक बच्चा उठाता है और शब्दों में अपना भविष्य देखता है।…
लालची मन क्या करे विचार लालच ऐसे टपके जैसे हो कोई अचार सारी उमर चलाते है लालच की दुकान पैसे बचाने के लिए बनवाते है फर्जी मकान लालच की कीमत होती है इतनी भारी कोट कचैरी करते बीत जाती है उमर सारी लालच से सिर्फ मिलता है कुछ पल का सुख बाद मे जब हाथ से जब सब रेत की तरह फिसलता है तो मिलता है मन को अपार दुख लालची के सामने इमानदारी है बहुत सस्ती मन मे हमेशा बेमानी है बस्ती लालच मे हो जाते है अपनो से दूर बता देते है उसे किस्मत का कसूर लालची मन को कभी मिलता नही सकून अपने और ( लालच) की धुन मे जलाते है कितनो का खून लालच मे रहते है कुछ लोग…
शब्द मौन हैं, व्यथा बोलती है, मन की गहराई आँसू तोलती है। हर धड़कन में टीस छुपी है, मुस्कानों के नीचे पीर बसी है। वक्त के साथ सब बदल गया, पर दिल का दर्द वहीं अटल रहा। सपनों की राख अब हाथों में है, स्मृतियों की लहरें साँझों में हैं। जिसे अपना समझा था हमने, वही पराया बन चल दिए चुपचाप। तन्हाई अब साथी बन गई है, सांसों में ठहराव सा है चुपशान्त। आशाओं की लौ मद्धम पड़ी, नयनों की कोरें भी भीग पड़ीं। कह न सका जो कहना था, सुन न सके जो सुनना था। अब बस मौन है,तन्हा जीवन, हृदय की पुकार हैं अब मेरा अंतिम अपनापन!
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